रील से रियल तक
"वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी"
"ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो"
"भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी"
"मगर लौटा दो बचपन का सावन"
"वो कागज़..........................."
जगजीत सिंह जी की ये ग़ज़ल "बचपन" के उस खूबसूरत दौर को बेहद सहेजता से बयाँ करती है। सच ही है, क्या बेपरवाह सा बचपन था वो... सोने के लिए माँ की गोद ,लाड के लिए पापा का कन्धा, अपना कहने को एक तीन पहियों वाली साइकिल और खाने को स्कूल से चुराई हुई चाक और मिट्टी के दिए ही काफी होते थे। कुछ न हो कर भी सब कुछ था हमारे पास और अब आलम वइसे-वर्सा है। किसे पता था ये नन्हे नन्हें पैर जो सिर्फ़ कभी मिट्टी में सना करते थे , आज जिम्मेदारियों का बोझ संभालेंगे। ये तो अब जा के जाना है की ज़िन्दगी इतनी आसान नहीं, हर पल एक नया इम्तेहान और एक नई करवट लेती है ज़िन्दगी। ज़िन्दगी का रास्ता तो सीधा है लकिन सफ़र में ढेरों मोड़ और उस हर मोड़ पर एक आयना ।
सही ही कहा है किसी ने "ज़िन्दगी एक रंगमंच है"........जहाँ हर चेहरे को अपना किरदार निभाना है, किसी को भीड़ में हँसना है तो किसी को अकेले में रोना है।
"आज दिल करता है की, फिर से बच्चा बन जाऊ"
"जिम्मेदारियों का बोझ पटक, फिर मिटटी में सन जाऊ"
"जिम्मेदारियों का बोझ पटक, फिर मिटटी में सन जाऊ"
"वो गुडियों की शादी पर लड़ना झगड़ना "
"वो झूलो से गिरना और गिरकर संभालना"
"वो झूलो से गिरना और गिरकर संभालना"
"ज़िन्दगी बेईमान नहीं , हर किसी को सबक देती है"
"खुद ख़त्म हो जाने पर भी जान ले लेती है"
"खुद ख़त्म हो जाने पर भी जान ले लेती है"
"ये ज़िन्दगी हर दिन एक नयी जीत एक नयी हार है"
फिर भी हम कहते है उनसे "ज़िन्दगी गुलज़ार है"....
फिर भी हम कहते है उनसे "ज़िन्दगी गुलज़ार है"....
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